Thursday, February 6, 2014

* श्यामा ऐसी हुयी बावरी *


खिली धूप में बाट पूछती, भटक रही सारी विभावरी?
पंथ न सूझे, लोग न बूझे, श्यामा ऐसी हुयी बावरी॥1॥

वैभव का संसार सामने,
मन में वीतरागता छाये।
धर्म-निकष पर चढ़ी विकल हो,
आँखों में प्रीतम इतराये।

सारे प्रेमी करें शिकायत, राधा के कुछ और भाव री!
श्यामा ऐसी हुयी बावरी॥2॥

श्याम विरह में यौवन अर्पित,
जीवन के बसन्त सब बीते।
इक स्मृति छवि, बनी सहारा,
श्यामा हित उत्सव सब रीते।

क्या समत्वमय हृदय बन गया, क्या सुख-दुख? क्या धूप-छाँव री!
श्यामा ऐसी हुयी बावरी॥3॥

मधुरिम पल, अभिसार मधुर वह,
पिय का दिव्य, मधुर विन्यास।
वही प्रगति नित मन में भाये,
क्या! अविकार, अपार समास।

एक अंक में हृदय खो गया, तारक केवल वही नाव री!
श्यामा ऐसी हुयी बावरी॥4॥

उपवन सूना, पतझड़ छायी,
सूखे पत्ते, डालें टूटीं।
मंदिर की वेदिका प्रकंपित,
कण- कण में बस यादें छूटीं।

कृष्ण- चरण स्मृति, बंशी- ध्वनि, अब दें उर में अकट घाव री!श्यामा ऐसी हुयी बावरी॥5॥ 

जीवन का अद्वैत मिलन कब,
अन्तिम सार प्रसार करे।
रोग निदान बने, तब-
जानो पीड़ा ही संसार हरे।

'सत्यवीर' मधुमास न बीते, रीते घट का क्या स्वभाव री!
श्यामा ऐसी हुयी बावरी॥6॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर' 
पुस्तक- 'इक पावस ऋतुओं पर भारी'}
मोबाइल नंबर - 08303406738